Tuesday, July 4, 2017

हंसना  था और सबको हँसाना था 
बचपन का ऐसा  एक जमाना था 
कंधो पे बैग टांगे स्कूल तक ही तो जाना था 
माँ की लोरिया तो पिता को  खिलौने हर रोज लाना था
चाहत थी चाँद को पाने की पर दिल तो चॉक्लेट का दीवाना था 

बारिश में कागज की नांव बनाना क्या मौसम वो सुहाना था 
खेल वो चोर -सिपाही का उसका तो अपना ही जमाना था 
हार बात पे जिद और रोना बस यही हथियार पुराना था 
हंसना था और सबको हँसाना था 
बचपन का ऐसा एक जमाना था 
खबर न होती दिन की न शाम का कोई  ठिकाना था  
बर्फ के गोले, मिट्टी के बर्तन इन्ही सब में वक़्त बिताना था 
अपनी ही दुनिआ में  खुश रहने का  यही  तराना  था 


भाई की चुगली फिर उसकी पिटाई भी  करवाना था 
दादी की परियो की  कहानियां फिर मस्ती में उनका  चश्मा  छिपाना था 
स्कूल की पढाई से थक कर  छुट्टी में नानी के घर भी तो जाना था
 जीवन मानो खुशियों  का खजाना था 
 ऐसा ही एक बचपन का मासूमियत का
 शरारतो का ,मस्ती का जमाना था 

गुजर गया क्यों बचपन का वो  जमाना  है 
अब तो ना रातो को नींद है न दिन का ठिकाना है 

दिल में बस कुछ कर गुजरने की चाहत
    और मंजिल को बस पाना है

बचपन की यादें  छूट गई ,अब तो हर रोज काम पे जाना है 
      जीवन युहीं संघर्षो में बिताना है 
क्यूंकि आज हर कोई बस..."सरकारी नौकरी का ही दीवाना" है !
                                                         -Suparna Mishra 










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