हंसना था और सबको
हँसाना था
बचपन
का ऐसा एक जमाना था
कंधो पे बैग टांगे स्कूल तक ही तो जाना था
माँ की लोरिया तो पिता को खिलौने हर रोज लाना था
चाहत थी चाँद को पाने की पर दिल तो चॉक्लेट का दीवाना था
बारिश में कागज की नांव बनाना क्या मौसम वो सुहाना था
खेल वो
चोर -सिपाही का उसका तो अपना ही जमाना था
हार बात पे जिद और रोना बस यही हथियार पुराना था
हंसना था और
सबको हँसाना था
बचपन
का ऐसा एक जमाना
था
खबर न होती दिन की न शाम का कोई ठिकाना
था
बर्फ के गोले, मिट्टी
के बर्तन इन्ही सब में वक़्त बिताना था
अपनी ही
दुनिआ में खुश रहने का यही तराना था
भाई की
चुगली फिर उसकी पिटाई भी करवाना था
दादी की
परियो की कहानियां
फिर मस्ती में उनका चश्मा
छिपाना था
स्कूल की
पढाई से थक कर छुट्टी
में नानी के घर भी तो जाना था
जीवन
मानो खुशियों का
खजाना था
ऐसा ही
एक बचपन का मासूमियत का
शरारतो
का ,मस्ती
का जमाना था
गुजर गया
क्यों बचपन का वो जमाना
है
अब तो ना
रातो को नींद है न दिन का ठिकाना है
दिल में बस कुछ कर गुजरने की चाहत
और मंजिल
को बस पाना है
बचपन की यादें छूट गई ,अब तो हर
रोज काम पे जाना है
जीवन
युहीं संघर्षो
में बिताना है
क्यूंकि
आज हर कोई बस..."सरकारी नौकरी का ही दीवाना" है !
-Suparna Mishra